एक साथ चुनाव कराए जाने पर कांग्रेस के तर्क में दम नहीं, हकीकत कुछ और

नई दिल्ली  । देश में एक साथ चुनाव कराए जाने पर लंबे समय से बहस जारी है। लेकिन अब चुनाव आयोग का भी कहना है कि वो सितंबर 2018 के बाद कभी भी एक साथ आम चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ करा सकता है। लेकिन कांग्रेस पार्टी का कहना है कि इससे संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी, हालांकि सच कुछ और है। आइए आपको बताते हैं कि कांग्रेस की चिंता के पीछे बुनियादी आधार क्यों नहीं है। लेकिन इससे पहले ये जानना जरूरी है कि 2016 में पीएम नरेंद्र मोदी ने एक साथ चुनाव कराए जाने को लेकर क्या कुछ कहा था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में भाजपा की एक बैठक में पार्टी के घोषणापत्र का जिक्र करते हुए आधिकारिक तौर पर पंचायत नगर निकायों, विधानसभाओं और लोकसभा का चुनाव एक साथ कराए जाने का विचार व्यक्त किया था। 2014 के बीजेपी के चुनाव घोषणा पत्र में संस्थागत सुधार के सेक्शन में कहा गया था कि भाजपा दूसरी पार्टियों के साथ बातचीत के जरिए एक ऐसा तरीका निकालना चाहेगी, जिससे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ कराए जा सकें। घोषणा पत्र में आम सहमति को साफ-साफ व्यक्त किया गया था। प्रधानमंत्री ने अप्रैल में मुख्यमंत्रियों और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस प्रस्ताव को दोहराया था और वे इसे टेलीविजन पर दिए गए अपने दो इंटरव्यू में भी व्यक्त कर चुके हैं। जून में जब विधि मंत्रालय ने अपनी राय जाहिर की थी तो चुनाव आयोग ने भी केंद्र और राज्य के चुनावों को साथ-साथ कराए जाने के विचार का समर्थन किया था।
कांग्रेस के ऐतराज के पीछे पुख्ता तर्क नहीं
1952 से लेकर 1967 यानि चौथे आम चुनाव तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ संपन्न होते थे। पांच साल के बाद पांचवें आम चुनाव 1972 में आयोजित होने चाहिए थे, लेकिन 1971 में इंदिरा गांधी की सरकार ने मध्यावधि चुनाव की घोषणा की। एक बार फिर नियम के मुताबिक 1976 में आम चुनाव होना चाहिए था, लेकिन ये क्रम एक बार फिर टूट गया। देश में आपातकाल लागू था इस वजह से आम चुनाव एक साल बाद यानि कि 1977 में कराए गए। कांग्रेस सरकार के असंवैधानिक फैसले के विरोध में समाजवादी नेता मधु लिमये और शरद यादव ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनका मानना था कि असंवैधानिक तौर पर लोकसभा के कार्यकाल को वो हिस्सा नहीं बनेंगे।

एकबारगी अगर 1976 के हालात को असाधारण मान लिया जाए तो भी 1971 में देश की तस्वीर 1976 जैसी नहीं थी। 1971 में ये माना गया कि इंदिरा सरकार के कुछ फैसलों से लोगों के दिल में कांग्रेस के प्रति विश्वास बढ़ा था और इंदिरा गांधी ने फायदा उठाने के लिए समय से पहले चुनाव करा दिया। इसके अलावा 1969 में कांग्रेस में फूट के बाद लोकसभा में कांग्रेस अल्पमत में आ चुकी थी और अपनी सरकार को बचाने के लिए इंदिरा गांधी को कम्युनिस्ट पार्टी की मदद लेनी पड़ी। कम्युनिस्टों से समर्थन हासिल कर सरकार में बने रहना इंदिरा गांधी की मजबूरी थी, जबकि सच ये है कि वो वाम दलों को पसंद नहीं करती थीं। इस पृष्ठभूमि में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक-दूसरे से अलग कराए जाने की परंपरा शुरू हुई।

1977 में जनता पार्टी की सरकार ने जनता के विश्वास को आधार बनाकर जब राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को भंग करने का फैसला किया तो कांग्रेस ने जबरदस्त विरोध किया। लेकिन 1980 में जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में काबिज हुईं तो उन्होंने गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को भंग करने का फैसला किया। इसलिए अगर देखा जाए तो 1971 में आम चुनाव और विधानसभा चुनावों को अलग-अलग कराने की परिपाटी कांग्रेस ने शुरू की। एक साथ चुनाव कराने की पहले भी उठ चुकी है मांग
भारत में एक साथ चुनाव कराने की मांग सबसे पहले लालकृष्ण आडवाणी ने रखी थी। उनकी बात का समर्थन पूर्व चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा ने भी किया था। उनका मानना था कि इससे सरकार के खर्चे में कमी आएगी तथा प्रशासनिक कार्यकुशलता में भी बढ़ोतरी होगी। भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी भी कहते हैं कि बार-बार चुनाव कराने से सरकार का सामान्य कामकाज ठहर जाता है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश में नवंबर 2013 में विधानसभा चुनाव हुए, फिर लोकसभा चुनाव के कारण आदर्श आचार संहिता लग गई। इसके तुरंत बाद नगर निकाय के चुनाव कराए गए और फिर पंचायत चुनाव। इन चुनावों के चलते 18 महीनों में से नौ महीने तक आदर्श आचार संहिता के कारण सरकारी कामकाज कमोबेश ठप सा रहा।

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