भिंड में दो पत्रकारों की कथित पिटाई का मामला अब भारत की सर्वोच्च अदालत की दहलीज़ पर है। यह कोई मामूली घटना नहीं, बल्कि प्रेस की स्वतंत्रता और स्थानीय प्रशासन के चरित्र पर उठते गहरे सवाल हैं। पत्रकारिता जब सवाल पूछती है, सत्ता जबाव देने की बजाय लाठी थाम ले, तो लोकतंत्र को आईना दिखाना ज़रूरी हो जाता है।
मध्य प्रदेश के भिंड जिले में शशिकांत जाटव और अमरकांत सिंह चौहान नाम के दो पत्रकारों ने जब चंबल नदी में रेत माफिया के अवैध साम्राज्य को उजागर किया, तो शायद उन्हें यह अंदाज़ा नहीं था कि सच्चाई के बदले उन्हें थप्पड़, घूंसे और धमकियों की सौगात मिलेगी। पत्रकारों का आरोप है कि उन्हें सीधे एसपी कार्यालय बुलाया गया और वहीं पुलिस ने मारपीट की। एक बार फिर, सत्ता और सिस्टम का पुराना खेल – "जो बोलता है, उसे तोड़ दो।"
अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया है। पत्रकारों की याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने न सिर्फ मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस भेजा है, बल्कि भिंड के पुलिस अधीक्षक असित यादव को भी पक्षकार बनाने का निर्देश दिया है। अगली सुनवाई 9 जून को होगी। कोर्ट ने साफ किया है – "अगर खतरा सच है, तो सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है।"
लेकिन सवाल भी कोर्ट ने पूछे हैं –
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खतरे के प्रमाण क्या हैं?
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मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का दरवाज़ा पहले क्यों नहीं खटखटाया गया?
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दिल्ली हाईकोर्ट की लंबित याचिका को आगे क्यों नहीं बढ़ाया गया?
सुनवाई के दौरान पत्रकारों की ओर से अधिवक्ता वारिशा फराजत ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के बयान और एफआईआर का हवाला देते हुए पत्रकारों की स्थिति की गंभीरता को रेखांकित किया। कोर्ट ने यह टिप्पणी भी की कि “बिना संबंधित अधिकारी को पक्ष बनाए आरोप लगाना उचित नहीं।” इस पर अधिवक्ता ने माफ़ी मांगते हुए एसपी को पक्षकार बनाने पर सहमति जताई।
इससे पहले 28 मई को दिल्ली हाईकोर्ट ने अमरकांत सिंह चौहान को दो महीने की पुलिस सुरक्षा देने के निर्देश भी दिए थे। यानी एक तरफ पत्रकार रिपोर्ट लिखते हैं, दूसरी तरफ अपनी जान की भीख मांगते फिरते हैं।
अब इस पूरे घटनाक्रम के केंद्र में जो बात सबसे ज़्यादा चुभती है, वो है "रेत माफिया और सत्ता का गठजोड़"। सवाल उठता है – क्या यह मामला सिर्फ दो पत्रकारों की सुरक्षा का है, या उस संपूर्ण पत्रकारिता की अस्मिता का, जो ज़मीन से उठती है और ज़मीन की ही सच्चाई दिखाती है?