भारत-चीन के बीच गतिरोध के 5 मुद्दे: कैसे सुलझाएंगे मोदी-जिनपिंग?

नई दिल्ली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दो दिवसीय अनौपचारिक चीन के दौरे पर वुहान शहर पहुंच गए हैं. पीएम मोदी आज चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात करेंगे. लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी चीन की धोखे और अविश्वास वाली उस मानसिकता को खत्म करने में कामयाब हो पाएंगे जिसके चलते दोनों देशों के संबंध एक कदम आगे बढ़ते हैं तो दो कदम पीछे हट जाते हैं.

तीस साल के फासले पर भारत और चीन का रिश्ता जस का तस खड़ा है. बातों में भरोसे की कोशिश लेकिन जमीन पर अविश्वास का माहौल. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अनौपचारिक ही सही लेकिन शिखर वार्ता तो होगी. तो सवाल है कि क्या इस मुलाकात में उन मुद्दों का हल निकलेगा, जिसने भारत की सरदर्दी बढ़ा दी है.

क्या इन मुद्दों का निकलेगा हल

पहली चुनौती- क्या डोकलाम में भारत-चीन की तनातनी खत्म करने में इस मुलाकात की कोई बड़ी भूमिका होगी?

दूसरी चुनौती- पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में चीन के दखल को लेकर भी है कि क्या भारत से रिश्तों की कीमत पर वो यहां सड़क और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर बनाता रहेगा.

तीसरी चुनौती- क्या मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने की भारत की कोशिशों का समर्थन करेगा या आगे भी अड़ंगा ही लगाएगा.

चौथी चुनौती- क्या न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी में भारत की एंट्री को चीन समर्थन के लिए तैयार होगा.

पांचवीं चुनौती- उस कारोबारी असंतुलन को मिटाने की है, जिसमें चीन ने तो भारत के बाजार पर काफी हद तक कब्जा कर रखा है लेकिन भारत के लिए चीन का मार्केट अभी तैयार नहीं है.

ये सवाल इसलिए खड़े हैं कि प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद ही पीएम मोदी ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भारत बुलाया था लेकिन जिस वक्त शी जिनपिंग साबरमती नदी के किनारे झूला झूल रहे थे, उसी वक्त चीनी सैनिक जम्मू और कश्मीर के चुमार में घुस आए थे.

क्या भारत और चीन के रिश्ते फिर से 1988 के वक्त में ठहरे हुए हैं?

1988 में जिस वक्त राजीव गांधी चीनी राष्ट्रपति डेंग जिओपिंग से मुलाकात कर रहे थे, उस वक्त समडोरोंग में चीन का अतिक्रमण था और अब जब प्रधानमंत्री मोदी शी जिनपिंग से मिलेंगे तो डोकलाम का विवाद सिर पर खड़ा है. राजीव गांधी के लिए चीन की उस यात्रा को सफल बनाने वाले विजय गोखले उस वक्त चीन में फर्स्ट सेक्रेटरी थे, जो मोदी सरकार में विदेश सचिव हैं. बड़ी बात ये है कि तीस साल पहले राजीव भी उस वक्त चीन की यात्रा पर थे जब एक साल बाद चुनाव होने वाला था. अब मोदी भी तब गए हैं जब एक साल बाद ही उनको भी जनता के बीच जाना है.

दरअसल 1954 में तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने चीन के साथ नए रिश्तों की बुनियाद रखने के मकसद से वहां की यात्रा की थी. लेकिन वो बुनियाद कमजोर निकला क्योंकि भारत के भरोसे के सीमेंट में उसने धोखे की रेत मिला दी. तब से कोशिशें बहुत हुईं लेकिन कामयाबी नहीं मिली. अब फिर से प्रयास हो रहा है तो उम्मीद रखने में हर्ज क्या है.

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