क्या कमल हासन दक्षिण की राजनीति को नया मोड़ देंगे?

 दक्षिण भारत में फिल्म और राजनीति के चोली-दामन के संबंधों पर यकीन करते हुए अभिनेता और फिल्मकार कमल हासन ने नई पार्टी का आरंभ तो कर दिया है लेकिन,यह कहना कठिन है कि यह प्रयास कोई चमत्कार दिखा पाएगा। जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति नई अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है और उसमें डूबने और उतराने की कई राजनीतिक संभावनाएं विद्यमान हैं। कमल हासन ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के परिवार से आशीष और रामेश्वरम के मछुआरों से समर्थन लेकर मदुराई से जो राजनीतिक यात्रा शुरू की है वह चेन्नई के फोर्ट सेंट जॉर्ज स्थित विधानसभा तक पहुंचेगी या दिल्ली की संसद तक आएगी यह तो समय बताएगा। उनकी राजनीति में अन्नाद्रमुक-द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दलों का ही नहीं भाजपा का भी विरोध है। जयललिता की पार्टी को एकजुट रख सत्ता में कायम रखने का काम भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व कर रहा है इसके बावजूद यह रिश्ता सहज नहीं है। इसका प्रमाण तब मिला जब केंद्रीय मंत्री राधाकृष्णन ने कहा कि तमिलनाडु आतंकियों का प्रशिक्षण स्थल है। इसके जवाब में उपमुख्यमंत्री पनीरसेल्वम ने यह खुलासा कर दिया कि किस तरह प्रधानमंत्री मोदी की इच्छा थी कि पार्टी से शशिकला का प्रभाव हटे और पलानीस्वामी मुख्यमंत्री बनें और पनीरसेल्वम भी मंत्रिमंडल में शामिल हों। उधर दो बार लगातार चुनाव हारने के बाद द्रमुक बहुत बेचैन है और अगला चुनाव जब भी हो उसे जीतने के लिए वह जान लगा देने की तैयारी में है। उसके भाग्य से टू-जी घोटाले से कनिमोझी और ए राजा के बरी होने का छीका टूटा है। असली सवाल कमल हासन के मैदान में उतरने और प्रभाव पड़ने का है। अगर चुनाव निर्धारित वर्ष 2021 में होता है तो उन्हें प्रचार करने और संगठन बनाने के लिए काफी समय मिल जाएगा और अगर दिनाकरण के 18 विधायकों पर विपरीत फैसला आने के कारण जल्दी होता है तो द्रमुक और अन्नाद्रमुक के माध्यम से भाजपा ज्यादा सशक्त हस्तक्षेप करेगी। भाजपा ने द्रमुक पर भी डोरे डालने में कसर नहीं छोड़ी है। इस बीच एक बात स्पष्ट होती जा रही है कि रजनीकांत जैसे लोकप्रिय अभिनेता कमल हासन की बजाय भाजपा का साथ देंगे। देखना है 2019 का चुनाव 1989 की तरह कोई नया ध्रुवीकरण करेगा और तमिलनाडु से दिल्ली तक मौलिक बदलाव करेगा या उन्हीं पुराने दो दलों के बीच सीमित रहेगा। 

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