भारत में अंग्रेजो के समय भी हुआ था लॉक डाउन......क्वारंटाइन भी नहीं है नया

9वीं और 20वीं सदी में हैजा और प्लेग बीमारियां आम थीं. ब्रिटिश काल के दौरान भी कॉलरा यानी हैजा कई एपिसोड में फैला. तब घबराई हुई अंग्रेज सरकार ने प्रभावित इलाकों में लॉकडाउन का निर्देश दे दिया. हालांकि तब इसे लॉकडाउन की बजाए हॉलीडे कहा जाता था. नवाब शासित हैदराबाद में भी इन दोनों बीमारियों के लिए मिलती-जुलती व्यवस्था थी. तब भी लॉकडाउन, कंटेनमेंट जोन, आइसोलेशन और प्रवासियों के साथ बीमारी फैलने का डर हुआ करता था. ये सारी ही बातें अब इतने सालों बाद भी कोविड-19 के मामले में दिखती हैं.
मिलते हैं दस्तावेज भी

इन दौरान अपनाए जाने वाले तरीकों का दस्तावेजीकरण भी है. जैसे अंग्रेजों ने हॉलीडे टर्म अपनाते हुए लोगों को क्वारंटाइन में रखा था, इसका जिक्र ब्रिटिश इंडिया के आधिकारिक रिकॉर्ड National Archives of India (NAI) में मिलता है. इसके अलावा ब्रिटिश इंडिया मेडिकल हिस्ट्री पर आर्काइव में पता चलता है कि कैसे अंग्रेजों और निजाम ने ट्रेनों और झुंड बनाकर यहां से वहां जाने वालों के लिए माना था कि उनसे संक्रामक बीमारियां फैलती हैं, खासकर हैजा. ऐसे में जैसे ही किसी खास हिस्से में बीमारी फैलने की खबर मिलती, उस जगह से दूसरी जगहों का संपर्क लगभग काट दिया जाता. वैसे देशबंदी जैसा कोई कदम कभी नहीं उठाया गया था.

ऐसे होता था लॉकडाउन
तब रोकथाम के लिए कंटेनमेंट जोन थे, जिन्हें cordon sanitaires कहा जाता था. ये एक फ्रेंच टर्म है, जिसका मतलब है लोगों की आवाजाही पर प्रतिबंध. इसकी शुरुआत 16वीं सदी में माल्टा से हो चुकी थी, जब प्लेग फैलने पर वहां सैनिकों की निगरानी में लोगों के कहीं आने-जाने पर मनाही हो गई. ब्रिटिश इंडिया में भी लोगों को रोकने के लिए सेना का इस्तेमाल होता था. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक तब सिर्फ उन्हें ही इसमें ढील मिलती थी, जिनके पास एक खास कागज होता था, जिसे प्लेग पासपोर्ट कहा जाता था. इसमें लिखा होता था कि वे प्लेग से पूरी तरह से मुक्त हैं. सड़क पर निकलते हुए उन्हें ये कागज साथ रखना होता था और हर दूसरे दिन सेहत की जांच करवानी होती थी.
प्रवासी मजदूरों को मुफ्त तनख्वाह
प्रवासी मजदूरों की समस्या तब भी उसी तरह थी, जैसी इस वक्त दिख रही है. शहरों में काम करने के लिए आए मजदूर बड़ूी संख्या में लौटें तो अपने साथ बीमारी लेकर लौटेंगे. ये देखते हुए ब्रिटिश इंडिया में अलग हल निकाला गया. तब मजदूरों को उनके घरों के आसपास या लगभग तीन किलोमीटर के दायरे में काम दिलवाने की कोशिश होती. इस दौरान वे अपने इलाके से बाहर नहीं जा सकते थे. साथ ही मजदूरों को 32 दिनों की तनख्वाह एडवांस दी जाती थी.


तैयार होती थी रणनीति
इसका जिक्र साल 1897 के फाइल नंबर 120 (शिमला रिकॉर्ड्स) में मिलता है, जो डिपार्टमेंट ऑफ रिवेन्यू और एग्रीकल्चर के पास उपलब्ध है. इसके मुताबिक साल 1897 की 20 मार्च को इलाहबाद में एक मीटिंग हुई, जिसमें अंग्रेज सरकार ने हॉलीडे (अब लॉकडाउन) पर बात की. संक्रामक बीमारी फैलने के दौरान मजदूरों को मिलने वाली इस छुट्टी में उन्हें अग्रिम तनख्वाह के साथ महीनेभर घर रहना होता था और अपनी सेहत का खयाल रखना होता था. प्रवासी मजदूरों को छोटे-छोटे समूहों में या ज्यादा से ज्यादा 500 लोगों को एक साथ अपने गांवों की तरफ भेजा जाता था.

क्वारंटाइन भी नहीं है नया
इसी तरह से क्वारंटाइन की भी आज से सदियों पहले शुरुआत हो चुकी थी. जैसे साल 1347 के अक्टूबर में चीन से होते हुए कई व्यापारिक जहाज इटली आकर लगे. उन जहाजों में ज्यादातर लोग प्लेग का शिकार हो चुके थे, जो बचे थे, उनके इलाज के दौरान संक्रमण फैला और लगभग 8 महीनों के भीतर ही बीमारी अफ्रीका, इटली, स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, हंगरी, स्विट्‌जरलैंड, जर्मनी, स्कैन्डिनेविया और बॉल्टिक पहुंच चुकी थी. बाद के लगभग पांच सालों तक यूरोप की आबादी इसका शिकार होती रही. आखिरकार एक तरीका निकला. लोगों ने चीन या एशिया से व्यापार कर लौटने वाले जहाजों को आइसोलेशन में रखना शुरू कर दिया, जब तक कि ये साबित नहीं हो जाता था कि जहाज के लोग संक्रमित नहीं हैं. ये पीरियड 30 दिन था, जिसे trentino कहा जाता था.


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