राहुल से भी ज़्यादा PM मोदी के लिए निर्णायक है गुजरात का जनादेश

गुजरात चुनाव को लेकर राजनीतिक दल चाहे जो भी दावे कर रहे हों, लेकिन दोनों ओर से लोग दिल थामकर बैठे हैं. कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के नेतृत्व में आर-पार की भूमिका में नज़र आ रही है और उसे उम्मीद है कि इसबार 22 साल की सत्ता के बाद वो भाजपा को राज्य विधानसभा में खुद से छोटा कर पाएंगे.

वहीं भाजपा अपने चिर-परिचित चेहरे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सहारे फिर से गुजरात में अपने चमत्कार को दोहराने का दावा कर रही है. भाजपा ने दावा किया है कि वो इसबार 182 सदस्यों वाली विधानसभा में 150 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है. ये और बात है कि ऐसा करने के लिए भाजपा को एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा है. प्रधानमंत्री से लेकर पार्टी के नेताओं तक लगातार वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिशें होती रहीं और गुजराती पहचान के नारे दोहराए जाते रहे. यह दिखाता है कि भाजपा जितना आसान इस चुनाव को जीतना बता रही है, बात उतनी आसान है नहीं.

लेकिन इस सारी बातों में सबसे अहम बात यह है कि गुजरात का विधानसभा चुनाव वर्ष 2014 के आम चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी के लिए शायद सबसे कठिन और निर्णायक चुनाव साबित होने जा रहा है.

मोदी किसी भी कीमत पर यह चुनाव जीतना चाहेंगे क्योंकि कांग्रेस से भी ज़्यादा भाजपा के लिए और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह चुनाव जीतना बहुत ज़रूरी है. वजह यह है कि देश का अगला आम चुनाव और नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद पर वापसी का रास्ता इस चुनाव के निर्णय पर टिका हुआ दिखाई दे रहा है.

आइए, डालते हैं कुछ बिंदुओं पर नज़र जो बताते हैं कि मोदी के लिए यह चुनाव क्यों आर-पार की लड़ाई है-

गुजरात मॉडल का ध्वस्त होना

अगर मोदी गुजरात हार जाते हैं तो यह गुजरात मॉडल का ध्वस्त हो जाना होगा. गुजरात मॉडल ही वो मॉडल है जिसे लेकर मोदी 2014 के चुनाव में उतरे थे और विकास की जो कथा उन्होंने लोगों को सुनाई थी, उसी के दम पर वो स्पष्ट बहुमत तक पहुंचे थे. लोगों को उम्मीद है कि मोदी उस मॉडल को देश का मॉडल बना देंगे. लेकिन अगर यह मॉडल अपने ही आंगन में फेल हो गया और भाजपा चुनाव हार गई तो मोदी के लिए यह एक बड़ी राजनीतिक और व्यक्तिगत हार होगी.

एक तरह से कह सकते हैं कि मोदी के राजनीतिक वर्चस्व की जान इस मॉडल में बसती है और इसलिए इस मॉडल की जीत बहुत अहम है. मोदी किसी कीमत पर गुजरात मॉडल की हार सह नहीं सकते.

राज्यों पर असर

गुजरात चुनाव में अगर भाजपा हारी तो इसका सीधा असर आगामी राज्य विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा. राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखंड, हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में मोदी और भाजपा की पिछले विधानसभा चुनावों में जीत का श्रेय पूरी तरह से मोदी लहर को जाता है. गुजरात की हार उस लहर के अंत के तौर पर देखी जाएगी. इसका सीधा असर वहां की राजनीतिक परिस्थितियों पर पड़ेगा और विपक्ष को मुखर होने का मौका मिलेगा.

ग़ौरतलब है कि इन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं और ऐसे में भाजपा के पास अपने पक्ष में दोबारा वोट मांगते समय गुजरात मॉडल और मोदी, दोनों कमज़ोर तर्क नज़र आएंगे. राज्यों में कमज़ोर प्रदर्शन से न केवल विधानसभा चुनाव प्रभावित होंगे बल्कि आम चुनाव के लिए भी ये राज्य भाजपा के पक्ष में एक मज़बूत माहौल पेश कर पाने में कम प्रभावी दिखेंगे.

आर्थिक सुधार

प्रधानमंत्री पहले से ही अपने आर्थिक सुधार के प्रयासों के चलते निशाने पर हैं. इसका असर ज़मीनी स्तर पर दिखाई दे रहा है. लोग इससे विचलित हैं. व्यापारी नाराज़ हैं और विपक्षी दल सरकार को लगातार इन सुधारों की कमियों के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं.

नोटबंदी के समय जब भाजपा को उत्तर प्रदेश में एक मज़बूत जनादेश मिला तो प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने इसे नोटबंदी को जनसमर्थन के तौर पर प्रचारित किया. लेकिन गुजरात हारने की स्थिति में यही तर्क भाजपा को उल्टा पड़ेगा. लोग कहेंगे कि जीएसटी और नोटबंदी के चलते भाजपा गुजरात में चुनाव हार गई.

इस हार से जहां सरकार के आर्थिक सुधारों की किरकिरी होगी. वहीं दूसरी ओर सरकार ऐसे किसी भी कड़े कदम को भविष्य में आज़माने के प्रति हतोत्साहित होगी. मोदी मजबूरन लोकलुभावन नीतियों के सहारे आगे बढ़ने को विवश होंगे.

भाजपा में विरोध

अभी तक बिहार और दिल्ली के अलावा भाजपा बाकी राज्यों में शानदार प्रदर्शन करती आई है. बिहार में भी वो नीतीश को अपने साथ खड़ा कर पाने में सफल रही है. एक-दो चेहरों को छोड़ दें तो पूरी पार्टी आज मोदी और अमित शाह के सुर में सुर मिलाती नज़र आती है.

लेकिन यही स्थिति गुजरात चुनाव की हार के बाद भी बनी रहेगी, यह कह पाना मुश्किल है. पार्टी में असंतुष्ट सांसदों, विधायकों की भी एक संख्या है जो बीच बीच में अपनी अनदेखी की कहानी कहते रहे हैं. वे थोड़ा और मुखर हो सकते हैं. जिस तरह से अमित शाह बिना किसी हस्तक्षेप पार्टी को चला रहे हैं, उसमें भाजपा के बड़े नेता और संघ दखल देना शुरू कर सकते हैं. ऐसे में पार्टी और सरकार में सबकुछ मनमर्ज़ी से तय कर पाना मोदी और अमित शाह के लिए उतना आसान और सहज नहीं रह जाएगा.

2019 में बहुमत

 सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या गुजरात मॉडल के ध्वस्त होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 जैसा प्रदर्शन आम चुनावों में कर पाएंगे. कमज़ोर राज्यों और ध्वस्त गुजरात मॉडल की चोट ऐसी पड़ सकती है कि पार्टी 2019 में बहुमत के मैजिक नंबर से नीचे उतर सकती है.

ऐसे में 2019 का चुनाव तो मोदी के लिए कठिन होगा ही, साथ ही सरकार बनाने और चलाने के लिए उनको बहुत साथी मिलने भी मुश्किल हो सकते हैं. स्थिति यह तक आ सकती है कि अगर एक बड़े एनडीए के लिए सरकार कोशिश करे भी तो मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने पर सहमति का रास्ता आसान नहीं होगा.

हालांकि ऐसी कई चिंताएं तभी सिर उठाएंगी जबकि भाजपा गुजरात विधानसभा चुनाव हार जाए और इसके लिए 18 दिसंबर का इंतज़ार करना ही बेहतर है.

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