कृष्ण हैं परम पुरुष

जीव तथा भगवान की स्वाभाविक स्थिति के विषय में अनेक दार्शनिक ऊहापोह में रहते हैं। जो भगवान कृष्ण को परम पुरुष के रूप में जानता है, वह सारी वस्तुओं का ज्ञाता है। अपूर्ण ज्ञाता परम सत्य के विषय में केवल चिन्तन करता जाता है, जबकि पूर्ण ज्ञाता समय का अपव्यय किये बिना सीधे कृष्णभावनामृत में लग  जाता है, अर्थात भगवान की भक्ति करने लगता है। सम्पूर्ण भगवद्गीता में पग-पग पर इस तथ्य पर बल दिया गया है। फिर भी भगवद्गीता के ऐसे अनेक कट्टर भाष्यकार हैं, जो परमेर तथा जीव को एक ही मानते हैं। वैदिक ज्ञान श्रुति कहलाता है, जिसका अर्थ है श्रवण करके सीखना। वास्तव में वैदिक सूचना कृष्ण तथा उनके प्रतिनिधियों जैसे अधिकारियों से ग्रहण करनी चाहिए। यहां कृष्ण ने हर वस्तु का अंतर सुन्दर ढंग से बताया है, अतएव इसी स्रोत से सुनना चाहिए। लेकिन केवल सुनना पर्याप्त नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि अधिकारियों से समझे। ऐसा नहीं कि केवल शुष्क चिन्तन ही करता रहे। मनुष्य को विनीत भाव से भगवद्गीता से सुनना चाहिए कि सारे जीव सदैव भगवान के अधीन हैं। जो भी इसे समझ लेता है, वही श्रीकृष्ण के कथनानुसार वेदों के प्रयोजन को समझता है, अन्य कोई नहीं समझता।  
भजति शब्द अत्यन्त सार्थक है। कई स्थानों पर भजति का संबंध भगवान की सेवा के अर्थ में व्यक्त हुआ है यदि कोई व्यक्ति पूर्ण कृष्णभावनामृत में रत है, अर्थात् भगवान की भक्ति करता है, तो यह समझना चाहिए कि उसने सारा वैदिक ज्ञान समझ लिया है। वैष्णव परंपरा में कहा जाता है कि यदि कोई कृष्ण-भक्ति में लगा रहता है, तो उसे भगवान को जानने के लिए किसी अन्य आध्यात्मिक विधि की आवश्यकता नहीं रहती। वह ज्ञान की समस्त प्रारंभिक विधियों को पार कर चुका होता है। लेकिन यदि कोई लाखों जन्मों तक चिन्तन करने पर भी इस लक्ष्य पर नहीं पहुंच पाता कि श्रीकृष्ण ही भगवान हैं और उनकी ही शरण ग्रहण करनी चाहिए, तो उसका अनेक जन्मों का चिन्तन व्यर्थ जाता है।  

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